अगर पता होता
सुबह के अलार्म को उंगली से सुला कर
उठने कि इच्छा को करवट से छुपा कर
नींद को उस रोज़ हम हराकर उछलते
अगर आता कोई दोस्त अपनी नींद भगा कर
मेस की भीड़ से खुद को बचाकर
थाली पकड़े बच्चो से चम्मच चुराकर
बेंच पे बैठी हुई अनजानी उदासी
हो जाती गायब एक गाली सुनाकर
वो अंतहीन रास्ता जिसका अंत दिखता ना था
वो गीली घनी घास जिसका हल मिलता ना था
थक हार कर पोहोंचते जब हम अपनी क्लास
शिक्षक मिलते हमें जिनका चेहरा खिलता ना था
दिन भर की क्लास मै समय बीत गया सारा
आखरी क्लास मै दोस्त का दिखा चेहरा हारा
अटेंडेंस मै चिलाकर अपनी हाज़िरी लगाई
जल्दबाजी मै निकले यू कि बैग छूट गया मारा
कमरे की खिड़की से देखते बस फूल
शाम को आ जाते वह बनके सब कूल
खाने के पैसे नहीं पर पेट ज़रूर था
खाना मंगाते ऊंदा और कूपन जाते भूल
उस दिन भी एसा हो सकता था
रात को बिना खाए सो सकता था
अगर पता होता वो आखरी दिन है
तो यारो के पास बैठ कर रो सकता था
***An ode to the class that I lost in quarantine***