साया
हर शाम घर की छत पे टेहेल्ते हुए एक अलग सुकून मिलता है। अपने आप से सवाल जवाब करते हुए वक़्त कैसे बीत जाता है पता नहीं चलता। शायद शाम का सन्नाटा मेरे मन के शोर को मेहेज़ शोर नहीं बल्कि दिल की आवाज़ समझता है।
ऐसी ही एक शाम टेहेल्ते हुए दूर मेरी नज़र एक छोटे से घर की छत पर पड़ी जहां एक इंसान रूपी साया टेहेल रहा था। पहली नज़र मै मैंने उसपे ध्यान नहीं दिया और चलते चलते मै छत के दूसरे कोने पे पोहाेंच गया। कुछ पलो के बाद फिरसे उस साए की झलक दिखी। “यह लड़का है या लड़की?” मैंने ये सवाल अपनी आंखो से पूछा। कोई जवाब नहीं मिला। वह साया आगे जा रहा था या पीछे/मेरे पास आ रहा था या मुझसे दूर हो रहा था मै नहीं जान पाया। शाम का वक़्त भी मेरे साथ एक खेल खेल रहा था। उतना अंधेरा कि सच्चाई ना जान सका और ठीक उतनी रोशनी कि वह छलावा देख सकूं। कुछ समय बाद अंधेरा बड़ता गया और नीचे से मां की पुकार सुनाई दी। एक आखरी सैर के दौरान मैंने उस साए को अपना हाथ उठाके एक संकेत देने कि कोशिश की। साया एक जगह ठहर गया को अपना हाथ उठाके मेरे संकेत को स्वीकार किया।
शायद वो साया भी मेरी तरह ही सोंच रहा था?
जीवन मै कुछ ऐसे पल होते है जिसमें इंसान अपने आप को उस पतंग की तरह पाता है जिसका कंकाल बिजली की तार पे लटक रहा होता है। किसी भी चीज से कुछ फर्क नहीं पड़ता। सच और झूठ भी एक समान लगते है।
निश्चयता से कोसों दूर एक संदेहजनक सच्चाई मै जीवन बिताते हुए शायद हम भूल जाते है कि कल्पना ख्वाब और मिथ्या हमारे जीवन का एक हिस्सा बन चुके है और इन्हें वास्तविकता से अलग कर पाना बेहद मुश्किल है।