क्या खून न उतना लाल मेरा?
घर लौट आता हूं जब तो बाहर के लोग दिखते है
अपने ही चक्षु रोज़ दिन मै आंख मिचौली खेलते है
पूछता हूं मै सब से कि क्या गगन बड़ा या समीरा?
धिटकारो और रोटियों से है ज़िंदा मेरा ये शरीरा
कलम कि स्याही खतम हुई तो पानी भर के लिखता हूं
दिखती नहीं है लोगों को जो मै महागाथाए बुनता हूं
फिर खाता हूं उसी गीले कागज़ पे सूखी दान की रोटी
रोज़ रात को सपनों के मज़ार मै मेरी रूह भी है भटकती
अरे कहां ले जा रहे हो मुझे भरके इस डब्बे मै
मैंने क्या पाप किया जो मुझे खामोश कर दिया
बस एक हाथ और होता तो बताता तुम्हे मै नहीं लाचार
मगर काट ले गए बाज़ू मेरी जब मै बन रहा था भगवान
ए मौत किसी दोस्त की तरह रोज़ दिन मै मिला कर
और रात मै जाना मुझे तू तानसेन के राग सिखा कर
अब खून सूख गया है मेरा ना हो रहा अब दर्द
बस एक चादर मै लिपटे रहकर सेह रहा आगरा की सर्द
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