Pratush koul
1 min readJun 26, 2020

अगर पता होता

सुबह के अलार्म को उंगली से सुला कर
उठने कि इच्छा को करवट से छुपा कर
नींद को उस रोज़ हम हराकर उछलते
अगर आता कोई दोस्त अपनी नींद भगा कर

मेस की भीड़ से खुद को बचाकर
थाली पकड़े बच्चो से चम्मच चुराकर
बेंच पे बैठी हुई अनजानी उदासी
हो जाती गायब एक गाली सुनाकर

वो अंतहीन रास्ता जिसका अंत दिखता ना था
वो गीली घनी घास जिसका हल मिलता ना था
थक हार कर पोहोंचते जब हम अपनी क्लास
शिक्षक मिलते हमें जिनका चेहरा खिलता ना था

दिन भर की क्लास मै समय बीत गया सारा
आखरी क्लास मै दोस्त का दिखा चेहरा हारा
अटेंडेंस मै चिलाकर अपनी हाज़िरी लगाई
जल्दबाजी मै निकले यू कि बैग छूट गया मारा

कमरे की खिड़की से देखते बस फूल
शाम को आ जाते वह बनके सब कूल
खाने के पैसे नहीं पर पेट ज़रूर था
खाना मंगाते ऊंदा और कूपन जाते भूल

उस दिन भी एसा हो सकता था
रात को बिना खाए सो सकता था
अगर पता होता वो आखरी दिन है
तो यारो के पास बैठ कर रो सकता था

***An ode to the class that I lost in quarantine***

Pratush koul
Pratush koul

Written by Pratush koul

Scribbling sentences which are in solidarity with solitude.

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